(अनवर चौहान) पंजाब में सन 2017 के होने वाले विधानसभा चुनाव की कमान कांग्रेस फिर कैप्टन अमरिंदर सिंह को सौंपने जा रही है। लेकिन सियासत में उनके करियर सफरनामा फूलों और कांटों से भरा रहा है। पटियाला के पूर्व राजघराने के वंशज, अमरिंदर सिंह को 1963 में भारतीय सेना की सिख रेजिमेंट में कमीशन मिला था. लेकिन फ़ौज की नौकरी उन्हें रास नहीं आई और 1965 की शुरुआत में उन्होंने सेना से इस्तीफ़ा दे दिया. हालाँकि जब पाकिस्तान के साथ युद्ध छिड़ा तो वो सेना में फिर शामिल हो गए और 1965 की जंग के दौरान पश्चिमी कमान के कमांडर दिवंगत लेफ्टिनेंट जनरल हरबख़्श सिंह के एडीसी के रूप में कार्यभार संभाला. सियासत से ख़ास वास्ता न रखने वाले अमरिंदर को उनके स्कूली दिनों के दोस्त राजीव गांधी 1980 में कांग्रेस में लेकर आए. इसी साल वो पहली बार लोकसभा के लिए चुने गए. राजनीति में अब तक का उनका सफ़र बेहद घुमावदार रहा है. 1984 में जब अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में सेना ने सशस्त्र चरमपंथियों को बाहर निकालने के लिए धावा बोला तो इसके विरोध में अमरिंदर ने संसद और कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया. साथ ही अगस्त 1985 में वो शिरोमणि अकाली दल में शामिल हो गए. इसके एक महीने बाद वे पंजाब विधानसभा के लिए चुन लिए गए और सुरजीत सिंह बरनाला की सरकार में मंत्री बने. 1987 में बरनाला सरकार को बर्ख़ास्त कर केंद्र ने पंजाब में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया. 1992 में अमरिंदर शिरोमणि अकाली दल से भी अलग हो गए और एक अलग दल अकाली दल (पंथिक) का गठन कर लिया. बाद में 1998 में इसका कांग्रेस में विलय हो गया. अमरिंदर के सियासी करियर को तब नई ऊँचाई मिली जब जुलाई 1998 में उन्हें पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष नियुक्त किया गया. राज्य में 2002 में हुए विधानसभा चुनावों में अमरिंदर के नेतृत्व में कांग्रेस को जीत हासिल हुई और वो पंजाब के मुख्यमंत्री बने. हालाँकि उनके कार्यकाल के दौरान पार्टी के भीतर ख़ासकर उस समय की उपमुख्यमंत्री राजिंदर कौर भट्टल के साथ अंदरूनी खींचतान चलती रही. लेकिन किसानों के लिए उठाए गए कई क़दमों के कारण उन्हें ख़ूब वाहवाही मिली. ख़ासकर नदियों से पानी के बंटवारे के मसले पर उन्होंने राज्य के किसानों के हित को मज़बूती से रखा. 2007 में कांग्रेस की हार हुई और अकाली दल-भाजपा गठबंधन सत्ता में आई. 2012 का विधानसभा चुनाव भी उनके ही नेतृत्व में लड़ा गया था, लेकिन कांग्रेस को अकाली दल के हाथों शिकस्त झेलनी पड़ी. हालाँकि इस पराजय में कांग्रेस आलाकमान की भी भूमिका थी, लेकिन अमरिंदर का जीत के प्रति अतिविश्वास भी अकाली-भाजपा सरकार की सत्ता में वापसी की बड़ी वजह बना. इसके बाद से वो सत्ता हासिल करने के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं.
अमरिंदर सिंह को दूसरे नेताओं से जो चीज़ अलग करती है वो है उनका संकल्प. अपने बुरे समय में भी वो हौसला नहीं खोते. वो सेना से जुड़ी तक़रीबन आधा दर्जन किताबें लिख चुके हैं. अमरिंदर का निजी जीवन भी ग़ैर पारंपरिक रहा है. पंजाब और देश में ही नहीं, विदेशों में भी उनके कई मित्र हैं. वो उनके लिए पार्टियों की मेज़बानी करते हैं. दूसरे राजनेताओं से उलट, उनका ढकोसलों में यक़ीन नहीं है और मतदाताओं को उन्हें उसी रूप में स्वीकार करना होता है, जैसे कि वो हैं. दो साल पहले 2013 में, उन्हें पंजाब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटा दिया गया था. इसके बाद से ही प्रदेश का नेतृत्व हासिल करने के लिए वो आलाकमान से एक तरह की लड़ाई लड़ रहे थे. 2014 के लोकसभा चुनावों में उन्होंने अमृतसर से भाजपा नेता अरुण जेटली को एक लाख से अधिक वोटों से हराया और इसके बाद सियासी सितारे उनके पक्ष में बनने शुरू हो गए. कांग्रेस ने अमरिंदर को लोकसभा में पार्टी के संसदीय दल का उपनेता नियुक्त किया, लेकिन अमरिंदर का दिल पंजाब में ही लगा रहा. पंजाब की कमान अमरिंदर को सौंपने को लेकर पार्टी नेतृत्व दुविधा में था और दूसरी तरफ़ अमरिंदर के समर्थकों के सब्र का बांध भी टूटता जा रहा था. उनके समर्थक चाहते थे कि अमरिंदर एक बार फिर कांग्रेस को अलविदा कह कर आगामी चुनावों के लिए नई पार्टी बना लें. लेकिन कांग्रेस ने फिर पटियाला के इस शेर पर दांव खेलने का मन बनाया और 2017 के विधानसभा चुनावों की ज़िम्मेदारी उन पर डाल दी है. उस समय राज्य में सरकार विरोधी भावनाएं मज़बूत हैं, लेकिन राज्य का सियासी समीकरण जटिल है. मसलन, 2012 के चुनावों में, कांग्रेस के सामने सिर्फ़ अकाली-भाजपा गठबंधन था, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी (आप) पंजाब में बड़ी ताक़त के रूप में उभरी है.
राज्य की कुल 13 लोकसभा सीटों में से कांग्रेस सिर्फ़ तीन पर ही जीत दर्ज कर सकी थी, जबकि आप ने चार सीटें हासिल की थीं और इतनी ही सीटें अकाली दल के हिस्से आई थी. दिल्ली विधानसभा में क्लीन स्वीप करने से आप पार्टी के हौसले पंजाब में भी बुलंद हैं.2017 के विधानसभा चुनावों के लिए कांग्रेस ने अपने सबसे मज़बूत नेता पर दांव लगाया है. लेकिन ये चुनाव अमरिंदर के 35 साल के सियासी करियर का सबसे मुश्किल इम्तिहान साबित होंगे. चार साल पहले उन्होंने ‘द लास्ट सनसेट’ लिखी थी, और किताब का ये टाइटल इस वक़्त 73 साल के अमरिंदर पर फिट बैठता दिखता है, क्योंकि शायद वो अपने सियासी करियर की आख़िरी लड़ाई लड़ रहे हैं.