अनवर चौहान

वर्ष 1980 के जून महीने का एक दिन. बंबई के सबसे अमीर इलाकों में से एक पैडर रोड के एक बंगले के लोहे के गेट से एक काली `मर्सिडीज़` कार निकली. उस समय तेज़ बारिश हो रही थी. कार को गेट से बाहर जाते उस बंगले की बालकनी पर खड़ा एक शख़्स देख रहा था. वो थोड़ा परेशान सा था. उसने अपने सफ़ेद कुर्ते की जेब में रखे `555` सिगरेट के पैकेट से एक सिगरेट निकाल कर सुलगा ली. दो घंटे और सात सिगरेटों के बाद वही `मर्सिडीज़` कार वापस उसके घर के गेट में घुसती दिखाई दी. कार के ड्राइवर ने तेज़ बरसात के बावजूद लपक कर कार का पीछे का दरवाज़ा खोला. कार से एक 70 साल की बुज़ुर्ग महिला उतरी. उस महिला का नाम था जेनाबाई दारूवाली और उस घर के मालिक का नाम था हाजी मस्तान. जेनाबाई `अंडरवर्ल्ड` की एक प्रमुख महिला थीं और पुलिस की ख़बरी भी.


मुंबई अंडरवर्ल्ड पर चर्चित किताब `डोंगरी टू दुबई` के लेखक एस हुसैन ज़ैदी बताते हैं, ``मस्तान जेनाभाई को अपनी बहन की तरह मानते थे और कई मुश्किल मसलों पर उनकी सलाह लिया करते थे. उस दिन भी उन्होंने जेनाबाई को इसी काम से अपनी कार भेज कर अपने घर बुलाया था.`` ``खाना खा चुकने के बाद हाजी मस्तान ने उनसे कहा कि मध्य बंबई में बेलासीस रोड पर मेरी एक `प्रापर्टी` है जिस पर गुजरात के बनासकाँठा ज़िले के `चिलिया` लोगों ने कब्ज़ा किया हुआ है. करीम लाला ने मेरे कहने पर उनको वहाँ से हटाने के लिए अपने गुंडे भेजे थे, लेकिन `चिलिया` लोगों ने उनके हाथ पैर तोड़ कर उन्हें वापस भेज दिया.``

हुसैन ज़ैदी आगे बताते हैं, ``जेनाबाई ने एक क़लम और काग़ज़ मंगवाया और कागज़ पर एक लकीर खींच कर मस्तान से बोली, `क्या तुम इस लकीर को बिना छुए हुए छोटा कर सकते हो ?` मस्तान ने कहा आपा मैंने आपको एक गंभीर मसले पर सलाह करने के लिए बुलाया है और आप मुझसे पहेली हल करवा रही हैं.`` ``जेनाभाई हंसी और बोली, तुम्हारी इस समस्या का हल इसी पहेली में छुपा हुआ है. मस्तान ने अपना माथा पकड़ते हुए पूछा, कैसे ? जेनाबाई ने फिर क़लम उठाया और उस लकीर के बग़ल में एक बड़ी लकीर खींचते हुए बोली, ऐसे. इस लकीर को बिना छुए हुए छोटा किया जा सकता है.``

``फिर उन्होंने मस्तान को समझाते हुए कहा कि तुम एक बड़ी ताकत बनाओगे जो कि `चिलिया` लोगों की ताकत से कहीं बड़ी ताकत होगी. मस्तान ने पूछा ये कैसे संभव है? जेनाबाई ने कहा तुम पठानों और दाऊद इब्राहीम के गैंग के बीच सुलह कराओगे और फिर ये दोनों मिल कर तुम्हारा काम करेंगे.``बिल्कुल ऐसा ही हुआ. मस्तान ने अपने निवास बैतुल-सुरूर पर आपस में लड़ रहे बंबई के गैंग्स की बैठक बुलाई और दोनों पक्षों को कुरान का हलफ़ दिला कर और ख़ून ख़राबा न करने के लिए मना लिया. समझौता कराने के बाद मस्तान ने अपनी समस्या उन लोगों को बताई. पठानों और दाऊद के गैंगों ने मिल कर `चिलिया` लोगों को वहाँ से हटने पर मजबूर कर दिया. बाद में उसी ज़मीन पर हाजी मस्तान ने एक ऊंची बहुमंज़िला इमारत बनाई और उसका नाम रखा `मस्तान टावर्स.`


1 मार्च, 1926 को तमिलनाडु के कुट्टालोर ज़िले में जन्मे हाजी मस्तान आठ साल की उम्र में बंबई आए, जहाँ पहले उन्होंने `क्राफ़ोर्ड मार्केट` में अपने पिता के साथ साइकिल बनाने की एक दुकान खोली और फिर 1944 में वो `बंबई डॉक` में कुली हो गए.वहीँ उनकी मुलाकात एक अरब शेख़ मोहम्मद अल ग़ालिब से हो गई. हुसैन ज़ैदी बताते हैं, ``वो ज़माना था जब भारत में आए सारे अरबी उर्दू बोला करते थे. ग़ालिब ने मस्तान से कहा कि अगर वो अपनी पगड़ी या गमछे में कुछ घड़ियाँ और सोने के बिस्कुट बाहर ले आएं. तो वो उन्हें उसके बदले में कुछ पैसे देंगें.``
ज़ैदी कहते हैं, ``धीरे धीरे वो उस अरब के ख़ासमख़ास हो गए और वो उन्हें अपनी कमाई का 10 फ़ीसदी देने लगा. तभी अचानक ग़ालिब को गिरफ़्तार कर लिया गया. उसकी गिरफ़्तारी से कुछ समय पहले ही मस्तान ने उसकी तरफ़ से सोने के बिस्कुट के एक बक्से की डिलीवरी ली थी. मस्तान ने उस बक्से को अपनी झोपड़ी में छिपा दिया.`` तीन साल बाद ग़ालिब जेल की सज़ा काट कर वापस लौटा. उसके पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी. मस्तान ग़ालिब को मदनपुरा की एक झोपड़ी में ले गए जहाँ उन्होंने उसे वो सोने के बिस्कुट से भरा लकड़ी का बक्सा दिखाया, जो अभी तक खोला तक नहीं गया था और उनके पास सुरक्षित था. ज़ैदी बताते हैं, ``ग़ालिब सोने के बिस्कुटों से भरा बक्सा देख कर अवाक रह गया. ग़ालिब ने पूछा, तुम चाहते तो इन बिस्कुटों को लेकर फ़रार हो सकते थे. मस्तान ने जवाब दिया, मेरे पिता ने मुझे सिखाया था कि तुम हर एक से बच सकते हो, लेकिन ईश्वर से कभी नहीं.`` ``ये सुनते ही ग़ालिब की आखों में आँसू आ गए. उसने कहा कि मैं इस बक्से को तभी स्वीकार करूंगा, अगर तुम इसको बेच कर मिलने वाली रकम का आधा हिस्सा मुझसे लोगे और इस पेशे में मेरे `पार्टनर` बन जाओगे. मस्तान ने इसके जवाब में अपना हाथ ग़ालिब के सामने बढ़ा दिया.``
सोने के बिस्कुटों के इस बक्से ने हाजी मस्तान की ज़िंदगी बदल दी और वो रातों-रात लखपती बन गये. उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और तस्करी को अपना फ़ुल टाइम पेशा बना लिया. मस्तान की इज़्ज़त में और इज़ाफ़ा तब हुआ जब उन्होंने `मझगांव डॉक` पर कुलियों से हफ़्ता वसूल करने वाले स्थानीय गुंडे शेर ख़ाँ पठान की पिटाई करवा दी. बाद में अमिताभ बच्चन की मशहूर फ़िल्म `दीवार` में इस दृश्य को फ़िल्माया गया. हुसैन ज़ैदी बताते हैं, ``मस्तान ने सोचा कि एक बाहरी शख़्स जो कि डॉक में कुली भी नहीं है, किस तरह वहाँ आ कर मज़दूरों से हफ़्ता वसूल कर सकता है. अगले शुक्रवार को जब शेर खाँ हफ़्ता वसूलने वहाँ पहुंचा तो उसने पाया कि हफ़्ता देने वालों की लाइन से दस लोग ग़ायब हैं.`` ``थोड़ी देर बाद इन्हीं लोगों ने डंडों और लोहे के रॉड्स से शेर खाँ और उसके आदमियों पर हमला कर दिया और उनको पीट पीट कर भगा दिया.``

``दीवार में ये दृश्य एक गोदाम में फ़िल्माया गया था जब कि वास्तव में ये लड़ाई `मझगांव डॉक` के सामने वाली सड़क पर हुई थी. इस घटना के बाद कुलियों के बीच मस्तान का सम्मान बहुत बढ़ गया था.`` बंबई के नामी `डॉन` होने के बावजूद हाजी मस्तान ने खुद कभी पिस्टल नहीं पकड़ी और न ही अपने हाथ से कभी गोली चलाई. उन्हें जब भी कभी ऐसे काम की ज़रूरत हुई, उन्होंने एक दूसरे `गैंग्सटर` वर्दराजन मुदालियार और करीम लाला का सहारा लिया. वर्दा भी मस्तान की तरह तमिल था और वरसोवा, वसई और विरार इलाकों में पैठ रखता था. वर्दा से हाजी मस्तान के संपर्क में आने की भी एक दिलचस्प कहानी है.
हुसैन ज़ैदी बताते हैं, ``स्मगलर` को ज़रूरत होती है उन लोगों की जो उसकी तरफ़ से मारपीट कर सकें और माल इधर से उधर ले जाने में मदद कर सके.`` ``एक बार वर्दा को `कस्टम्स डॉक` इलाके से `एंटीना` चुराने के आरोप में पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया. पुलिसवालों ने कहा कि अगर उसने चोरी के माल को बरामद नहीं करवाया तो वो उसकी पिटाई करने के लिए मजबूर हो जाएंगे.`` ``वर्दा `आज़ाद मैदान लॉक अप` में ये सोच ही रहा था कि अब क्या किया जाए, कि एक सफ़ेद सूट पहने शख़्स,जिसकी उंगलियों में 555 की सिगरेट फंसी हुई थी, सीधे सीख़चों की तरफ़ बढ़ आया. उसे किसी पुलिस वाले ने नहीं रोका. मस्तान ने वर्दा के बिल्कुल नज़दीक आकर तमिल में कहा, `वणक्कम थलाएवार` यानी `नमस्कार मेरे मालिक.`` वर्दराजन मस्तान का ये संबोधन सुन कर आश्चर्यचकित हो गया. उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि एक इज़्ज़तदार सेठ उस जैसे गुंडे को इतनी इज्ज़त देगा. मस्तान ने उससे तमिल में ही कहा, चुराए हुए माल को वापस कर दो. मैं ये सुनिश्चित करूंगा कि तुम बहुत पैसा कमाओ. वर्दा इस प्रस्ताव को अस्वीकार नहीं कर पाया. वर्दा को जेल से तुरंत रिहा कर दिया गया और उस के बाद से वो मस्तान के सभी `डर्टी` काम करने लगा.

80 का दशक आते-आते मस्तान की ठसक में काफ़ी कमी हो गई थी, लेकिन तब भी उसके बारे में लोगों के बीच तरह तरह की कहानियाँ फैली हुई थीं, जो कि ज़ाहिर है सच नहीं थीं. मस्तान को नज़दीक से जानने वाले मशहूर उर्दू पत्रकार ख़ालिद ज़ाहिद जब वो एक बार हाजी मस्तान के साथ बनारस गए थे, तब का एक दिलचस्प किस्सा सुनाते हैं. वे कहते हैं, ``हम लोग दालमंडी इलाके में एक सस्ते से होटल में ठहरे हुए थे. तभी लोगों को पता चल गया कि वहाँ हाजी मस्तान आए हुए हैं. मिनटों में ही वहाँ करीब 3000 लोग जमा हो गए. मैं पत्रकार था. मैंने सोचा, मैं क्यों न नीचे उतर कर लोगों को बीच जा कर ये जानने की कोशिश करूं कि वो हाजी मस्तान के बारे में क्या सोचते हैं?``
``वहाँ लोगों ने मुझे बताया कि हाजी मस्तान एक ऐसे बंगले में रहता है जिसमें 365 दरवाज़े हैं. हर रोज़ वो एक नए दरवाज़े से बाहर निकलता है, जहाँ एक कार उसका इंतज़ार करती है. वो सिर्फ़ एक बार उस कार का इस्तेमाल करता है और उसे बेच कर मिलने वाले पैसों को ग़रीबों में बांट देता है.`` ``वास्तविकता ये थी कि मस्तान उस समय 15 साल पुरानी फ़ियेट कार इस्तेमाल कर रहे थे. उनके पास बंगला ज़रूर था लेकिन इतना बड़ा नहीं जिसमें 365 दरवाज़े हों. मैंने वापस आकर अपने अख़बार में इस विरोधाभास को दिखाते हुए असली और नकली मस्तान का चित्र खींचा था, जिसे मस्तान ने पसंद नहीं किया था और वो मुझसे चिढ़ गया था.``


हाजी मस्तान मुंबई की फ़िल्मी दुनिया से बहुत आकर्षित थे. उन्होंने न सिर्फ़ कई फ़िल्में बनाई, बल्कि एक `स्ट्रगल` कर रही अभिनेत्री से शादी भी कर ली. हुसैन ज़ैदी बताते हैं, ``दरअसल मस्तान अपनी जवानी के दिनों में मधुबाला के दीवाने थे और उनसे शादी करना चाहते थे. लेकिन तब तक मधुबाला का निधन हो चुका था. अगर वो जीवित भी होतीं तो भी मस्तान से कतई शादी नहीं करती.`` ``उन दिनों मुंबई मे मधुबाला जैसी दिखने वाली एक अभिनेत्री काम कर रही थीं. उसका नाम वीणा शर्मा उर्फ़ `सोना` था. मस्तान ने उन्हें शादी का पैग़ाम भिजवाया, जिसे उन्होंने तुरंत स्वीकार कर लिया. उन्होंने सोना के लिए जुहू में एक घर ख़रीदा और उनके साथ रहने लगे.`` धीरे धीरे मस्तान ने मुंबई के वीआईपी सर्किल में जगह बना ली और लोग उनके तस्करी वाले दिनों को भूलने लगे. हाजी मस्तान की पहली पत्नी से तीन बेटियाँ थीं बाद में उन्होंने एक शख्स सुंदर शेखर को गोद ले लिया.
सुंदर शेखर बताते हैं, ``फिल्मी दुनिया के कई लोग बाबा के निकट थे. उनमें से प्रमुख थे राज कपूर, दिलीप कुमार और संजीव कुमार. `दीवार` बनने के दिनों में उसके लेखक सलीम और अमिताभ बच्चन बाबा से अक्सर मिलने आया करते थे, ताकि वो उस किरदार की गहराई तक जा सके. बाबा के बाल हमेशा पीछे की तरफ़ मुड़े होते थे. अगर कोई उनसे अंग्रेज़ी में बात करता था तो वो उससे बार-बार `या, या` कहा करते थे.`` 80 के दशक की शुरुआत में हाजी मस्तान की ताकत में कमी आना शुरू हो गई थी, क्योंकि मुंबई अंडरवर्ल्ड में नई ताकतें भरना शुरू हो गई थीं. ख़ालिद ज़ाहिद बताते हैं, ``उनके बीच कई नए `गैंग` तैयार हो गए थे और उनकी क़दर कीमत बहुत ज़्यादा बढ़ गई थी. मैं उन लोगों के नाम नहीं लेना चाहता, लेकिन इन नए `गैंग्स` ने हाजी मस्तान की प्रासंगिकता को बिल्कुल कम कर दिया था.``
1974 में इंदिरा गांधी ने हाजी मस्तान को पहली बार `मीसा` के अंतर्गत गिरफ़्तार करवाया था. 1975 में आपातकाल के दौरान भी हाजी मस्तान को सीखचों के पीछे रखा गया. उस समय के चोटी के `क्रिमिनल` वकील राम जेठमलानी की सेवाएं लेने के बावजूद उनकी रिहाई नहीं हो पाई थी. जेल से छूटने के बाद उनकी जयप्रकाश नारायण से मुलाकात हुई थी और इसी वजह से उनका राजनीति में आने का मार्ग प्रशस्त हुआ और उन्होंने `दलित मुस्लिम सुरक्षा महासंघ` नाम की एक पार्टी भी बनाई. लेकिन ये पार्टी कुछ ख़ास नहीं कर सकी.
हुसैन ज़ैदी कहते हैं, ``हर अपराधी एक `स्टेज` के बाद सफ़ेदपोश बनने की तमन्ना रखता है. हाजी मस्तान भी इसके अपवाद नहीं थे. उन्होंने एक पार्टी बनाई जिसके बारे में उनकी सोच थी कि वो एक दिन शिव सेना का स्थान ले लेगी. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया.`` 9 मई, 1994 को 68 वर्ष का आयु में दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गई. हमेशा फ़िल्मी हस्तियों के इर्दगिर्द घूमने वाले मस्तान की मौत पर सिवाए मुकरी के किसी फ़िल्मी हस्ती ने उनके घर पर जाकर शोक नहीं व्यक्त किया.