(अनवर चौहान की ख़ास रिपोर्ट) टूट कर बिखरती ज़िंदगियां.....तिनकों को जोड़ कर जो बनाए थे आशियाने तबाह हो गए....बस भाग रहे हैं....मंज़िल कोई नहीं...मुंह का निवाला तक छिन गया है फिर भी कोशिश है किसी आसरे की...मददगार कोई नहीं....परवाह है तो जान की...और तलाश है किसी घरोंदे की....भागे जा रहे हैं उस तरफ जहां परिवारों की जान बच जाए। यूरोपीय देशों की सीमाओं पर फंसे सीरियाई प्रवासियों की तस्वीरों, ख़ास तौर पर तीन साल के  बच्चे अलान कुर्दी की भयावह तस्वीर ने इस समस्या को पूरी दुनिया के लिए बयां कर दिया है. सीमाओं और रेलवे स्टेशनों पर फंसे सीरियाई लोगों की तस्वीरों से दुनिया भर में गुस्सा भी पैदा हुआ है.खासतौर पर यह गुस्सा गल्फ़ कोऑपेरेशन कौंसिल के अरब देशों (सऊदी अरब, बहरीन, कुवैत, ओमन, और संयुक्त अरब अमीरात) के ख़िलाफ़ है जिन्होंने अपने दरवाज़ें शरणार्थियों के लिए बंद कर रखे हैं. इस आलोचना के बीच यह याद रखना ज़रूरी है कि खाड़ी देशों ने सीरियाई शरणार्थियों के लिए अब तक कुछ नहीं किया है.व्यक्तिगत स्तर पर उदरता व्यक्तिगत स्तर पर इन देशों के लोगों की उदारता जरूर उल्लेखनीय रही है. व्यक्तिगत दान के पैसों से लाखों डॉलर की मदद सीरियाई शरणार्थियों तक पहुंचाई गई है. जब सरकारी कंपनियों, जैसे क़तर पेट्रोलियम ने व्यक्तिगत दान के लिए कर्मचारियों को तनख्वाह का एक हिस्सा कटवाने का विकल्प दिया तो अनेक कर्मचारियों ने ऐसा किया. खाड़ी देशों के चैरिटेबल संगठन और व्यक्तिगत दान के ज़रिए कुल मिलाकर 90 करोड़ अमरीकी डॉलर की मदद राशी सीरियाई शरणार्थियों के लिए जुटाई है. हालांकि अब जब सीरियाई युद्ध लंबा खिच गया है तो शरणार्थियों के शिविर में राहत सामग्री की कमी हो गई है. दुनिया को इतनी बड़ी संख्या में प्रवासियों के इधर से उधर जाने, यानी शरणार्थियों की इस समस्या से निपटने के लिए दूसरा समाधान ढूंढना पड़ेगा. युद्ध से थके हारे सीरियाई शरणार्थी शिविरों में सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा समाधान खोजना अब बीते समय की ज़रूरत है, क्योंकि अब वो सुरक्षित भविष्य की खोज में नई जगहों की ओर बढ़ रहे हैं. आज जो सवाल सबसे अहम बना हुआ है, वो है लाखों लोगों के लिए रहने की नई जगहें. और इस सवाल का जवाब देने में खाड़ी देश असमर्थ नज़र आ रहे हैं. स्पष्ट नीति..हालांकि खाड़ी देशों ने कुछ सीरियाई नागरिकों को अपने यहां प्रवासी कामगारों के रूप में जगह दी है. सऊदी अरब का कहना है कि उसने 2011 से अब तक पांच लाख लोगों को अपने यहां काम दिया है. इन देशों में काम की अनुमति के बिना शरणार्थियों के रहने के लिए कोई स्पष्ट नीति ही नहीं है.  इस बात को समझने के लिए खाड़ी देशों के अंदर की राजनीतिक अस्थिरता और उससे जुड़े हुए डर को समझना होगा. 2012 में बशर अल असद के साथ युद्ध की शुरुआत में ही देश में अलग-अलग गुटों के अलग विदेशी समर्थकों और उनके हितों के टकराव की बात सामने आई. अरब देश सुन्नी हितों की रक्षा पर बनाई रणनीति पर चल पड़े. दूसरी ओर शिया बहुल ईरान, शिया गुटों के समर्थन की नीति पर चल पड़ा. इस तरह इन हितों की पैरवी करने वालों के बीच टकराव भी साफ़ हो गया.तब खाड़ी देशों में इस बात को लेकर आशंका पैदा हुई कि असद के प्रति वफादार सीरियाई लड़ाके, खाड़ी देशों में घुसपैठ करके बदले की कार्रवाई कर सकते हैं. इसके साथ ही खाड़ी देशों में आने वाले सीरियाई यात्रियों की स्क्रीनिंग शुरू हो गई और सीरियाई लोगों के लिए खाड़ी देशों में काम करने का मौका पाना मुश्किल हो गया. ये नीति क़तर, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात में इस आशंका की वजह से अब भी चल रही है. असहज स्थिति तीन सालों से खाड़ी देशों में यह अफवाह रही है कि `स्लीपर सेल्स` यानी चुपचाप चरमपंथी गतिविधियां करने वालों नज़र रखा जा रहा है और उन्हें हिरासत में लिया जा रहा है. हालांकि आज तक असद समर्थकों के किसी साज़िश के पर्दाफाश होने की बात सामने नहीं आई है. इसके अलावा खाड़ी देशों में हज़ारों सीरियाई शरणार्थियों के अचानक आ जाने से इन देशों में विभिन्न समुदायों की जनसंख्या का असंतुलन पैदा हो सकता है. उदाहरण के तौर पर संयुक्त अरब अमीरात और क़तर में नागरिकों की संख्या कुल जनसंख्या का मात्र 10 फ़ीसदी है. खाड़ी देशों में बाहर के लोगों को सिर्फ काम के परमिट पर आने की छूट है. एकबार ठेका ख़त्म होने के बाद बाहरी लोगों को अपने घर लौटना पड़ता है. इस तरह से खाड़ी के देश आबादी के मामले में संतुलन को कायम रखते हुए अपनी स्थिति मजबूत रखते हैं. इसलिए खाड़ी देशों में बिना काम के हज़ारों शरणार्थियों को आना उनके लिए असहज स्थिति पैदा करता है.