इंद्र वशिष्ठ (वरिष्ठ पत्रकार)
दिल्ली पुलिस के पीआरओ आईपीएस  मधुर वर्मा ने एक टि्वट किया है जिसे पढ़ कर आप समझ सकते हैं कि राष्ट्र भाषा का उनको कितना ज्ञान और सम्मान है  कितनी लापरवाही से वह काम करते हैं। टि्वट के साथ जो फोटो/ विज्ञापन पोस्ट  किया गया है। उसमें यह लिखा हुआ है "कोई भी संदेहजनक व्यक्ती  के ओर मैं अपनी आंख और कान खुली रखूंगा।" इसमें ना तो वाक्य सही है और ना ही शब्द।यह अफसर हिंदी भाषी प्रदेश के ही हैं। इस टि्वट को दिल्ली पुलिस ने भी रिट्वीट कर  दिया है। इससे पता चलता है कि पुलिस में किस तरह अफ़सर आंख मूंद कर काम कर रहे हैं।


जिस का काम उसी को साजे---दिल्ली पुलिस के  पीआरओ रवि पवार 2006 में रिटायर हो गए।वह भारतीय सूचना सेवा के अधिकारी थे लेकिन बाद में पुलिस में ही स्थायी हो गए थे। पवार के रिटायर होने के बाद से आज़ तक इस पद पर सूचना सेवा  के अधिकारी को नियुक्त नहीं किया गया है। अपराध शाखा के राजन भगत को पीआरओ का ही अतिरिक्त कार्य सौंप दिया  गया था। पिछले साल दिसंबर में उनसे यह कार्य वापस ले लिया गया। इसके बाद अपराध शाखा के डीसीपी मधुर वर्मा को यह कार्य सौप दिया गया। कुछ दिन पहले उनसे अपराध शाखा का काम वापस लेकर पूर्णकालिक पीआरओ बना दिया गया।  जिस कमरे में पीआरओ डीसीपी राजन भगत बैठते थे वह कमरा आईपीएस मधुर वर्मा को अपनी शान के मुताबिक नहीं लगा। इसलिए उन्होंने सबसे पहला काम उस कमरे की अपनी शान और शौक के  मुताबिक साज सज्जा कराने के लिए किया।  इस पर सरकारी खजाने से जनता के टैक्स के लाखों रुपए लुटा दिए।

शायद इसी व्यस्तता में वह अपना पीआरओ का काम सही तरह नहीं कर पाए। दूसरा यह है कि आईपीएस को पुलिसिंग के काम से हटा कर पीआरओ का काम कराने का भी यह  नतीजा हो सकता हैं। पिछले करीब तीन दशक में जो नहीं हुआ वह अब हो गया।  पहले पत्रकार पीआरओ के कमरे में बेधड़क जाते थे और जाना भी चाहिए क्योंकि पीआरओ का काम तो पत्रकारों और पुलिस के बीच पुल की तरह संबंध अच्छे बनाने का  होता है। लेकिन अब चूंकि आईपीएस पीआरओ है तो वह अपनी अफसरी दिखाने से कैसे बाज आएगा।‌‌‌‌सो अब पत्रकारों का  बेधड़क प्रवेश बंद कर दिया गया और साहब के रहमो-करम पर है कि वह किससे मिलेंगे और किससे नहीं मिलंगे।कमरे के बाहर बकायदा इसके लिए सिपाही तैनात कर दिया गया। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जो अफ़सर पत्रकारों के साथ भी ऐसा कर रहा है जिले में तैनाती के दौरान आम आदमी से कैसा व्यवहार करता रहा होगा। पीआरओ ब्रांच के ही सूत्रों ने बताया कि अब पुलिस के बुलावे  पर पुलिस के कार्यक्रम में अगर जो रिपोर्टर नहीं पहुंचे और उस कार्यक्रम के प्रचार की खबर नहीं दी या पुलिस मुख्यालय में पीआरओ ब्रांच में  नियमित नहीं पहुंचते तो  पुलिस के व्हाइट ऐप ग्रुप से भी‌‌ उसको  हटाया जा रहा है। ऐसा मैने देखा भी है कि रिपोर्टर के नियमित ना होने के कारण हटाने की बात बकायदा पुलिस लिख‌ कर बता रही  है।
लेकिन अगर आप किसी कथित बड़े मीडिया ग्रुप से हैं फिर चाहे  उसका मालिक बानिया सुभाष चंद्र गोयल और संपादक सुधीर चौधरी जैसे ही हो जो कि  नवीन जिंदल से 100  सौ करोड़ की जबरन वसूली के मामले में दिल्ली पुलिस के आरोपी  भी हो तो भी  पुलिस अफसर आपको पूरा सम्मान देंगे। आपको पुलिस के व्हाटस ग्रुप पर किसी दूसरे पत्रकार के बारे में भी बकवास करने की सुविधा उपलब्ध रहेगी।जो दिल्ली पुलिस मीडिया को भी बड़े-छोटे ग्रुप के रिपोर्टर के नजरिए से देखने लगे वह आम आदमी के प्रति संवेदनशील नहीं हो सकती। रवि पवार के समय में प्रेस और अफसरों के बीच तालमेल और संबंध काफी हद तक अच्छे थे।राजन भगत ने भी इन संबंधों को बनाए रखा और अपनी व्यवहार कुशलता से मीडिया के साथ सही तरीके से काम किया। पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक को यह समझना चाहिए कि कि पेशेवर प्रवक्ता न होने का खामियाजा पुलिस को भुगतना पड़ता है। पेशेवर पीआरओ तो बिना हिचक के पेशेवर राय पुलिस कमिश्नर को दे सकता है दूसरी ओर अस्थायी पीआरओ बना आईपीएस अफसर  तो पुलिस कमिश्नर की सिर्फ हां में हां ही मिलाएगा। पुलिस के पीआरओ का काम तो मीडिया से अच्छे संबंध बनाने का ही होता है। पीआरओ ही अगर भेदभाव और मीडिया से ही अफसरी दिखाने लगेगा तो संबंध अच्छे कहां से होंगे। मूल बात यह है कि स्थायी पेशेवर पीआरओ के होने से ही संबंध अच्छे रहते क्योकि वहीं रिपोर्टर की पेशेवर काम में आने वाली दिक्कतों को समझ सकता है और अफसरों को उससे अवगत करा कर समाधान की कोशिश भी कर सकता है।
टाइम्स पास पीआरओ--आईपीएस अफसर पीआरओ बनने के लिए पुलिस में नहीं आए हैं वह तो मजबूरी में अच्छी पोस्टिंग  के इंतजार में अपना समय बिताने के लिए अस्थायी रुप से और कुछ शौकिया ही काम करेंगे। ऐसे पीआरओ के लिए एक कहावत है कि रोते-रोते जाओगे तो मरे की खबर ही  लाओगे।मतलब पीआरओ ऐसा होगा तो मीडिया में पुलिस की छवि ख़राब ही पेश करेगा। पुलिस और प्रेस के बीच पुल का काम करने वाले पेशेवर पीआरओ की जरूरत है। आईपीएस ने तो बने हुए पीआरओ नामक पुल को ही तोड़ दिया । पीआरओ का काम प्रेस के माध्यम से पुलिस की छवि को सुधारने जैसा जिम्मेदारी का काम होता है। यह काम पेशेवर पीआरओ ही कर सकता है। अगर पेशेवर पीआरओ की कोई अहमियत नहीं होती तो सरकार को भारतीय सूचना सेवा बनाने की जरूरत ही नहीं होती। वैसे कुछ आईपीएस को यह गलतफहमी भी होती है कि वह आईपीएस बन गए तो सर्वज्ञानी और सर्व गुण संपन्न हैं और सभी काम वह कर सकते हैं।