अनवर चौहान की चुनावी यात्रा
चुनाव अपने चरम पर हैं लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुस्लिम बहुल इलाक़ों में ख़ामोशी है. भारत में मुसलमानों की सबसे बड़ी आबादी वाले इलाक़ों में से एक पश्चिमी उत्तर प्रदेश से मुस्लिम प्रतिनिधि संसद पहुंचते रहे हैं. लेकिन साल 2013 के सांप्रदायिक दंगों के बाद हुए ध्रुवीकरण के माहौल में 2014 के चुनाव में इस इलाक़े से एक भी मुस्लिम प्रतिनिधि नहीं चुना गया. लेकिन साल 2019 में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल ने मिलकर चुनाव लड़ा तो पांच मुसलमान सांसद पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सीटों से जीतकर संसद पहुंचे थे. सहारनपुर से हाजी फ़ज़लुर्रहमान, अमरोहा से कुंवर दानिश अली, संभल से डॉ. शभीकुर्रहमान बर्क़, मुरादाबाद से एसटी हसन और रामपुर से आज़म ख़ान ने जीत दर्ज की थी. लेकिन 2024 का चुनाव आते आते राजनीतिक समीकरण बदल गए हैं. समाजवादी पार्टी कांग्रेस के साथ `इंडिया` गठबंधन में है, राष्ट्रीय लोक दल अब बीजेपी के साथ है और बहुजन समाज पार्टी अकेले चुनाव लड़ रही है. इन हालात में भी इस इलाके से कई मुस्लिम उम्मीदवार चुने जाने की संभावना है। चूंकि इस बार बड़ी तादात में हिंदू वोट मुस्लिम उम्मीदवारों को मिल रहा है।

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या नए बदले समीकरणों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश से मुसलमान सांसद फिर से चुनकर संसद पहुंच पाएंगे? ये सवाल और गंभीर तब हो जाता है जब कई मुस्लिम बहुल सीटों पर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के मुसलमान उम्मीदवार आमने-सामने हैं. सहारनपुर में कांग्रेस के प्रत्याशी इमरान मसूद हैं तो बहुजन समाज पार्टी ने माजिद अली को टिकट दिया है. वहीं, अमरोहा में मौजूदा सांसद दानिश अली इस बार कांग्रेस के टिकट पर मैदान में हैं और बसपा ने मुज़ाहिद हुसैन को उम्मीदवार बनाया है. संभल में दिवंगत सांसद डॉ. शफीकुर्रहमान बर्क़ के पोते ज़ियाउर्रहमान को समाजवादी पार्टी ने टिकट दिया है तो बसपा ने यहां सौलत अली को उम्मीदवार बनाया है. मुरादाबाद से समाजवादी पार्टी ने मौजूदा सांसद एसटी हसन का टिकट काटकर रूची वीरा को उम्मीदवार बनाया है जबकि यहां बसपा ने इरफ़ान सैफ़ी को टिकट दिया है. रामपुर में आज़म ख़ान जेल में हैं. समाजवादी पार्टी ने यहां मौलाना मोहिबुल्लाह नदवी को टिकट दिया है जबकि बसपा से जीशान ख़ां मैदान में हैं. कई सीटों पर मुसलमान उम्मीदवारों के आमने-सामने होने की वजह से ये सवाल उठा है कि क्या पश्चिमी उत्तर प्रदेश से एक बार फिर मुस्लिम प्रतिनिधि चुनकर संसद पहुंच सकेंगे?
कई पार्टियां बदल चुके और कई चुनाव हार चुके इमरान मसूद अब कांग्रेस के टिकट पर सहारनपुर से उम्मीदवार हैं. एक मुस्लिम नेता की छवि वाले इमरान मसूद ने अब रणनीति बदल ली है. वो हिंदू बहुल इलाक़ों में जनसंपर्क पर अधिक ध्यान दे रहे हैं. गुर्जर बहुल दुगचाड़ा गांव में सभा से पहले इमरान मसूद की ट्रैक्टर रैली में आस-पास के गांवों के कई गुर्जर और ठाकुर लोग शामिल हुए हैं. बीजेपी सरकार के प्रति नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए ये लोग अपने समुदायों को नज़रअंदाज़ करने का आरोप लगाते हैं और इमरान मसूद को अपने बीच से निकला नेता बताते हुए समर्थन देने की बात करते हैं. इमरान मसूद बार-बार `भगवान राम को सबका बताते हुए` चौपाई सुनाते हैं. सांप्रदायिकता के सवाल पर इमरान मसूद कहते हैं, "मीडिया ने जिस तरह की छवि मेरी पेश की है मेरा व्यक्तित्व उससे अलग है, अगर यहां सांप्रदायिकता होती तो इतने हिंदू समर्थक मेरी सभा में ना आए होते. हिंदू मुझे अपने गांवों में बुलाकर सम्मान कर रहे हैं. इमरान मसूद ख़ामोशी से चुनाव लड़ रहे हैं. मुस्लिम बहुल इलाक़ों में उनका प्रचार धीमा नज़र आता है. हालांकि, दुगचाड़ा गांव में कई लोग इमरान मसूद की ज़मीनी नेता की छवि से प्रभावित नज़र आते हैं. भगवा वेश पहने क़रीब 45 वर्षीय एक साधु कहते हैं, "जो नेता पब्लिक के बीच हो और अच्छा काम करे उसे वोट देना चाहिए. इमरान कई बार चुनाव हार चुका है, उसका काम अभी किसी ने नहीं देखा है, जनता के बीच रहता है, एक मौका उसे भी देकर देखना चाहिए. यहां मौजूद कई अन्य लोग भी इसी तरह की राय ज़ाहिर करते हैं. हालांकि इस हिंदू बहुल गांव में सर्वाधिक समर्थक बीजेपी के हैं. एक युवा कहता है, हम दलित हैं, मेरे परिवार से बीजेपी का भी समर्थन है और बसपा का भी लेकिन मुझे इमरान अधिक अच्छे लग रहे हैं.
सहारनपुर सीट पर पिछली बार समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में लड़ी बसपा के उम्मीदवार हाजी फ़जलुर्रहमान ने जीत दर्ज की थी. इस सीट पर दलितों और मुसलिम वोटों का गठजोड़ निर्णायक साबित होता है. इस बार बसपा ने माजिद अली को मैदान में उतारा है जो दलितों और मुसलमानों के वोट को एकजुट करने का दावा करते हैं. एक दलित और मुसलमान बहुल गांव में जनसंपर्क कर रहे माजिद अली कहते हैं, मुसलमान और दलित वोटों का गठजोड़ ही इस सीट पर बीजेपी को हरा सकता है. गठबंधन के उम्मीदवार इमरान मसूद यहां मुसलमान वोटों को काटने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन लोग अब समझदार हो गए हैं. माजिद अली कहते हैं, संसद में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व होना ज़रूरी है. हम लोगों को समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि एकजुट होना क्यों ज़रूरी है. मुसलमान अपने दम पर सीट नहीं जीत सकते, उन्हें अतिरिक्त वोट चाहिए और ये वोट सिर्फ़ बसपा ही दिला सकती है. सभी दलित वोटर अपनी पार्टी के साथ एकजुट हैं. हमें उम्मीद है मुसलमानों और दलित वोटों का गठजोड़ फिर से यहां कामयाब होगा. सहारनपुर में त्रिकोणीय मुक़ाबला है. इमरान मसूद का अपना समर्थक वर्ग है. माजिद अली दलित वोट बैंक के साथ दावेदारी कर रहे हैं जबकि बीजेपी के राघव लखनपाल शर्मा यहां 2014 में जीत हासिल कर चुके हैं. लेकिन पलड़ा इमरान मसूद का भारी है।
सहारनपुर से सटी कैराना सीट पर राजनीतिक परिवार से आने वाली इक़रा हसन समाजवादी पार्टी के टिकट पर `इंडिया` गठबंधन की उम्मीदवार हैं. इक़रा भी हिंदू वोटों को अपनी तरफ़ खींचने की रणनीति पर काम कर रही हैं. एक जाट बहुल गांव में क़रीब दो सौ लोगों की जनसभा में इक़रा अकेली महिला हैं. यहां मंच संचालक बार-बार लोगों का नाम पुकार रहे हैं जो इक़रा को माला पहनाकर सर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दे रहे हैं. पास ही के एक घर में महिलाएं जुटी हैं. मंच से इक़रा स्थानीय मुद्दों का ज़िक्र करती हैं. सभा समाप्त करके जब वो महिलाओं के बीच पहुंचती हैं तो महिलाएं उन्हें लपककर गले लगाती हैं. यहां एक युवती कहती हैं, इक़रा लड़की है और लड़ रही है. इक़रा को देखकर हम जैसी लड़कियों में हौसला पैदा हुआ है. इस इलाक़े में, जहां पहले लड़कियों पर कई तरह की पाबंदियां थीं वहां इक़रा ने मर्दों के बीच चुनाव में उतरकर हम जैसी लड़कियों के लिए राजनीति में रास्ता खोला है. ओमवती इक़रा की पक्की समर्थक हैं. राजनीति में लड़कियों की भागीदारी के सवाल पर वो कहती हैं, अगर आगे चलकर मेरी बेटी भी राजनीति में जाना चाहेगी तो हम उसे रोकेंगे नहीं. अगर इक़रा लड़ सकती है तो हर लड़की लड़ सकती है. क़रीब 60 साल की एक महिला कहती हैं, लड़की परिवार को बेहतर समझती है, 50 परसेंट तो लड़कियां ही हैं, अब लड़कियां पीछे ना हैं और ना रहेंगी.धार्मिक और जातिगत समीकरणों के बीच इक़रा हसन महिलाओं के बीच अपनी पैठ बनाती नज़र आती हैं.
इक़रा हसन कहती हैं, यदि मैं यहां से चुनी जाती हूं तो मेरा पूरा ध्यान लड़कियों के लिए शिक्षा के मौके बेहतर करना होगा. मैं कोशिश करूंगी कि यहां बड़ा कॉलेज खुलवाऊं, यदि सरकारी फंड से ये नहीं करवा सकी तो निजी फंड से करवाने की कोशिश करूंगी. चुनाव में सांप्रदायिकता के सवाल पर इक़रा कहती हैं, सभी धर्म और वर्ग के लोगों से समर्थन मिल रहा है. लोग समझ रहे हैं कि सांप्रदायिकता अब मुद्दा नहीं है. जब मुज़फ़्फ़रनगर में दंगा हुआ था तब भी उसका प्रभाव कैराना तक नहीं पहुंचा था. यहां लोगों ने एक दूसरे की मदद की थी. इस इलाक़े का मिजाज़ अलग है. इक़रा हसन थार पर सवार होकर रोड-शो करने निकल जाती हैं. दर्जनों मर्दों के बीच वो अकेली थार पर खड़ी हैं. जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पिछले लोकसभा चुनावों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दिखा था, वो अब कमज़ोर पड़ रहा है, यहां कई हिंदू बहुल गांवों में लोग इक़रा हसन से प्रभावित नज़र आते हैं। कई लोग यहां एक जैसी राय ज़ाहिर करते हुए कहते हैं कि इक़रा लोगों के बीच रहती है, यदि वो चुनाव जीतती हैं तो यही इसका सबसे बड़ा कारण होगा.
 यहां से क़रीब दो सौ किलोमीटर दूर अमरोहा में बहुजन समाज पार्टी के मौजूदा सांसद दानिश अली इस बार कांग्रेस के टिकट पर गठबंधन के उम्मीदवार हैं. दानिश अली मानते हैं कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की वजह से मुसलमानों का प्रतिनिधित्व घट रहा है. दानिश अली कहते हैं, संसद में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व लगातार घटता जा रहा है क्योंकि पिछले कुछ सालों में ऐसा माहौल बनाया गया है कि जहां कोई मुसलमान प्रत्याशी होता है वहां सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की साज़िश की जाती है. दानिश अली कहते हैं, "ये एक बड़ा सवाल है कि देश की एक बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व लगातार घट रहा है. बीजेपी नारा देती है कि `कांग्रेस मुक्त भारत` लेकिन असल में इसका मतलब है `विपक्ष मुक्त भारत` और `मुस्लिम मुक्त` विधायिका. दानिश अली भी इस बार बिना किसी शोर-शराबे के ख़ामोशी से चुनाव लड़ रहे हैं. बसपा का दलित वोट बैंक अमरोहा सीट पर भी अहम भूमिका निभाता है. दानिश अली कहते हैं, जो पीड़ित, वंचित, शोषित और हाशिए पर खड़ा समाज है उसका प्रतिनिधित्व घट रहा है. ये चुनाव मेरे बारे में नहीं है, इसके मुद्दे बड़े हैं. हम लोगों की समझदारी पर भरोसा कर रहे हैं और हमें उम्मीद है कि लोग एकजुट होकर विपक्ष को मज़बूत लड़ेंगे. वहीं, बहुजन समाज पार्टी भी इस सीट पर मुस्लिम और दलित वोटों को अपने पक्ष में एकजुट करने का प्रयास कर रही है.
बसपा ने इस बार अमरोहा से मुज़ाहिद हुसैन को उम्मीदवार बनाया है. बहुजन समाज पार्टी उम्मीदवार के राजनीतिक सलाहकार आज़ाद ख़ालिद तर्क देते हैं कि बसपा ही अपने मज़बूत दलित वोट बैंक के समर्थन के साथ मुसलमानों के प्रतिनिधित्व की गारंटी दे सकती है. आज़ाद ख़ालिद कहते हैं, लोकतंत्र में लोगों को गिना जाता है, तोला नहीं जाता. सवाल मुस्लिम प्रतिनिधित्व का नहीं है बल्कि बड़ा सवाल मुसलमानों के हक़ों का है. भारत का संविधान मुसलमानों के अधिकारों को सुरक्षित करता है, जब तक संविधान है, मुसलमान भारत में सुरक्षित हैं. कई राजनीतिक विश्लेषक ये मानते हैं कि बहुजन समाज पार्टी मुस्लिम बहुल सीटों पर विपक्ष के मुसलमान उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ मुसलमान उम्मीदवार खड़ा करके वोट काटने का काम करती है. हालांकि आज़ाद ख़ालिद इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज करते हुए कहते हैं, बसपा वोट नहीं काटती है बल्कि अपने दलित वोट बैंक के साथ मुसलमानों का प्रतिनिधित्व सुरक्षित करने की गारंटी देती है. जब-जब मुसलमान और दलित वोट साथ आते हैं, चुनाव में जीत मिलती है. चूंकि बसपा शोषित और ग़रीब वर्ग की पार्टी है, ऐसे में उस पर कोई भी आरोप लगा देता है. आज़ाद ख़ालिद कहते हैं, मुसलमान उम्मीदवार को ग़ैर मुसलमान वोट ट्रांसफर कराने की ताक़त सिर्फ़ बसपा के पास है. बसपा का वोटर वर्ग साफ़ मन से अपनी पार्टी के लिए मुसलमान उम्मीदवारों को वोट करता है.
अमरोहा से क़रीब चालीस किलोमीटर दूर संभल मुसलमान बहुल आबादी का इलाक़ा है. यहां से मुस्लिम सांसद चुनकर आते रहे हैं. इस सीट पर समाजवादी पार्टी से दिवंगत सांसद डॉ. शफीक़ुर्रहमान बर्क़ के पोते ज़ियाउर्हमान बर्क़ गठबंधन के उम्मीदवार हैं जबकि बहुजन समाज पार्टी ने भी मुस्लिम उम्मीदवार सौलत अली को मैदान में उतारा है. संभल शहर में अधिकतर आबादी मुसलमानों की है. यहां भी चुनाव का शोर नज़र नहीं आता. संभल के युवा राजनीति में मुसलमानों की कम होती जगह को लेकर चिंतित नज़र आते हैं. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और दिल्ली की जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पढ़ाई करने वाले ये युवा मानते हैं कि संसद में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कम होने की सबसे बड़ी वजह ये है कि भारत में मुसलमानों को एक तरह से अलग-थलग किया जा रहा है. एक रिसर्च स्कॉलर कहते हैं, सातवीं लोकसभा चुनाव में 49 मुसलमान सांसद चुने गए थे, 2019 में सिर्फ़ 27 मुसलमान संसद पहुंचे. आज हालात ये है कि कोई पार्टी मुसलमान को टिकट नहीं देना चाहती. सबसे बड़ी पार्टी से पिछली बार सिर्फ़ एक मुसलमान सांसद सौमित्र ख़ान बंगाल से चुने गए थे. यूपी में बीजेपी ने एक भी टिकट किसी मुसलमान को नहीं दिया है. इस बार 27 मुसलमान जीत पाएंगे, इसे लेकर भी आशंका है. एक मुसलमान युवा जो पत्रकारिता के छात्र हैं, कहते हैं, अभी के राजनीतिक परिदृश्य में मुसलमान युवा अपना प्रतिनिधित्व तलाश रहा है लेकिन उसे मिल नहीं पा रहा है. राजनीति में मुसलमानों को अलग-थलग किया जा रहा है. हालात ये है कि सेकुलर पार्टियां भी मुसलमानों का नाम लेने या उनके मुद्दों पर बात करने से बच रही हैं.
उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की आबादी क़रीब बीस प्रतिशत मानी जाती है. मुसलिम युवा तर्क देते हैं कि धर्मनिरपेक्षता की राजनीति का दावा करने वाले विपक्ष के `इंडिया` गठबंधन ने भी इस तबके को आबादी के लिहाज़ से टिकट नहीं दिया है, बाक़ी दलों से तो क्या ही उम्मीद की जाए. अगर मुसलमानों को संसद में प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा तो इसका क्या असर हो सकता है. इस सवाल पर रिसर्च स्कॉलर युवा कहते हैं, इसका सीधा मतलब ये है कि संसद में मुसलमानों के मुद्दे उठाने वाला कोई नहीं होगा. वहीं एक अन्य युवा कहता है, भारतीय लोकतंत्र में मुसलमान दूसरे दर्जे के शहरी ना हो जाएं इसके लिए संसद में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बढ़ना ज़रूरी है.
संभल से क़रीब 60 किलोमीटर दूर रामपुर के बाज़ार में रौनक है लेकिन चुनावों को लेकर कोई ख़ास चर्चा नहीं है. रामपुर की राजनीति में पिछले चार दशक से असर रखने वाले समाजवादी पार्टी नेता आज़म ख़ान और उनके परिवार के कई लोग इस समय जेल में हैं. यहां समाजवादी पार्टी ने मौलाना मोहिबुल्लाह नदवी को मैदान में उतारा है, वहीं बहुजन समाज पार्टी से जीशान ख़ान दावा ठोक रहे हैं. यहां के चुनाव पर आज़म ख़ान की ग़ैर मौजूदगी का असर साफ़ नज़र आता है. कई बार उपचुनाव होने की वजह से लोगों में भी उदासीनता है. एक युवा खीजते हुए कहता है, रामपुर के लोग चुनावों से ऊब गए हैं. 2019 के बाद से रामपुर में लगातार चुनाव हो रहे हैं. कभी चेयरमैनी का चुनाव, कभी विधानसभा चुनाव, फिर लोकसभा उपचुनाव, फिर विधानसभा उपचुनाव, रामपुर के लोग चुनाव लड़ाते-लड़ाते बोर हो चुके हैं. ये मुस्लिम युवा चुनावों के दौरान प्रशान के दमनकारी रवैये का आरोप लगाते हुए कहता है, रामपुर का मुसलमान डरा हुआ है. यहां लोगों को डर लगता है कि कहीं पुलिस घर ना पहुंच जाए. रामपुर में मतदाता ख़ामोश हैं. आज़म ख़ान के जेल में बंद होने का भी यहां समाजवादी पार्टी के चुनाव अभियान पर असर नज़र आता है. वहीं, बसपा का दावा है कि इस बार वो मुसलमान वोटरों को अपनी तरफ़ आकर्षित कर रही है.
स्थानीय बसपा नेता शहाब खां दावा करते हैं, समाजवादी पार्टी जानती है कि जिस दिन मुसलमान वोट बीएसपी की तरफ हो जाएगा, बीस प्रतिशत मतदाता बाईस प्रतिशत से मिल जाएंगे तब समाजवादी का कुछ रह नहीं जाएगा. यही हम लोगों को समझा रहे हैं. अगर दलित मुसलमान वोटर एक साथ आएंगे तो हमारे उम्मीदवार की जीत तय है. रामपुर में भी बसपा, सपा और बीजेपी उम्मीदवारों के बीच त्रिकोणीय मुक़ाबला हो गया है. हालांकि यहां कई लोग ये ज़रूर कहते हैं कि मतदान जब नज़दीक़ आएगा तब शहर की हवा अलग होगी. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इंडिया गठबंधन ने चार सीटों पर मुसलमान उम्मीदवार उतारे हैं जबकि बसपा ने सहारनपुर, अमरोहा, संभल और रामपुर के अलावा मुरादाबाद से भी मुसलमान उम्मीदवार को टिकट दिया है. वहीं भारतीय जनता पार्टी ने पश्चिम यूपी सहित समूचे उत्तर प्रदेश में किसी भी मुसलमान को उम्मीदवार नहीं बनाया है.
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, मुसलमान वोटों में बिखराव, परिसीमन और कम मतदान प्रतिशत की वजह से मुस्लिम बहुल इलाक़ों से भी मुसलमान जन प्रतिनिधियों का संसद पहुंचना मुश्किल होता जा रहा है. सहारनपुर के मसूद राजनीतिक परिवार से संबंध रखने वाले हमज़ा मानते हैं कि मुसलमानों को राजनीति में अलग-थलग किया जा रहा है. हमज़ा कहते हैं, साल 2014 के बाद से मुसलमानों को राजनीतिक रूप से अलग-थलग किया जा रहा है, जब हमारा प्रतिनिधित्व ही नहीं होगा तो हमारे मुद्दे कैसे उठेंगे. सांप्रदायिक दल हमें टिकट नहीं देते और इसी वजह से सेकुलर दल भी मुसलमानों को टिकट देने से बचते हैं कि कहीं माहौल सांप्रदायिक ना हो जाए. हालांकि, इस मुश्किल वक़्त में भी मेरे जैसे बहुत से युवा हैं जो राजनीति में हैं और अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं. ये वक़्त बदलेगा और मुसलमान अपना प्रतिनिधित्व हासिल कर पाएंगे. सुप्रीम कोर्ट के वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता महमूद प्राचा रामपुर से निर्दलीय उम्मीदवार हैं. प्राचा मुसलमानों के कम होते प्रतिनिधित्व के लिए राजनीतिक पार्टियों को भी ज़िम्मेदार मानते हैं. प्राचा कहते हैं, जिन राजनीतिक दलों का मुसलमान समर्थन करते हैं, सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी उनकी बनती है कि वो मुसलमानों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चि करें. इन राजनीतिक दलों को मज़बूत मुसलमान उम्मीदवार उतारने चाहिए ताकि वो ना सिर्फ़ पार्टी को मज़बूत करें बल्कि अपने समुदाय को भी प्रभावशाली आवाज़ दे सकें. प्राचा कहते हैं, "संसद में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए इसलिए ही आरक्षण है ताकि उनके नुमाइंदे संसद पहुंचे. संसद में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होने के बावजूद इन वर्गों के हालात ख़राब हैं क्योंकि इनके नुमाइंदे पार्टी की लाइन पर अधिक चलते हैं. मुसलमानों की हालत और ख़राब है क्योंकि उनका प्रतिनिधित्व और भी कम है.
अगर देश की एक बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व लगातार कम होगा तो इसका क्या असर हो सकता है? प्राचा कहते हैं, "इससे मुसलमानों में असंतोष बढ़ेगा, जिन दलों का वो आज बढ़-चढ़कर समर्थन कर रहे हैं उनसे भी उनका दिल टूटेगा और उनसे भी दूर हो जाएंगे और अगर ऐसा हुआ तो एक तरीक़े से मुसलमानों को अलोकतांत्रिक तरीक़ों की तरफ़ धकेल दिया जाएगा. कोई भी समुदाय एक समय के बाद ज़ुल्म सहना बंद कर ही देता है. सहारनपुर, कैराना, रामपुर और मुरादाबाद में 19 अप्रैल को मतदान होगा. अमरोहा में 26 अप्रैल और संभल में 7 मई को वोट डाले जाएंगे. बड़ी मुसलमान आबादी वाली इन सीटों पर इंडिया गठबंधन, बहुजन समाज पार्टी और बीजेपी के बीच त्रिकोणीय मुक़ाबला है. सवाल यही है कि क्या इस बार भी इन सीटों से मुसलमान प्रतिनिधि संसद पहुंच सकेंगे या लोकतंत्र में मुसलमानों की भागीदारी और कम हो जाएगी.