
अनवर चौहान
संयुक्त राष्ट्र आम सभा में शुक्रवार को अलग और स्वतंत्र फ़लस्तीन राष्ट्र की स्थापना को लेकर वोटिंग हुई. इस प्रस्ताव को कुल 193 सदस्य देशों में से 142 देशों का समर्थन मिला. इसके विरोध में केवल 10 देशों ने वोट दिया, वहीं 12 देशों ने वोटिंग से दूरी बनाए रखी. न्यूयॉर्क घोषणापत्र कहे जाने वाले इस प्रस्ताव का समर्थन करने वालों में भारत के साथ-साथ चीन, रूस, सऊदी अरब, क़तर, यूक्रेन, यूके, इटली, फ्रांस, जर्मनी समेत कई मुल्क हैं. इसराइल और अमेरिका समेत कुल 10 मुल्कों ने इसके विरोध में वोट किया है. इससे पहले वेस्ट बैंक के अदुमीम बस्ती के दौरे पर गए इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने कहा था, "फ़लस्तीनी राष्ट्र कभी नहीं बनेगा, यह जगह हमारी है." समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार नेतन्याहू ने गुरुवार को इसराइली बस्तियों के विस्तार की एक विवादास्पद योजना से जुड़े समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं. इसके तहत उस ज़मीन पर बस्तियां बनाई जाएंगी जिस पर फ़लस्तीनी अपना दावा करते हैं.
यह प्रस्ताव ऐसे वक़्त आया है जब 22 सितंबर को न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र की एक अहम बैठक होनी है. फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कहा था कि इस बैठक में वह औपचारिक तौर पर फ़लस्तीन को राष्ट्र का दर्जा देंगे. फ्रांस के अलावा, नॉर्वे, स्पेन, आयरलैंड और यूके भी इसी तरह के क़दम उठाने की बात कर चुके हैं. शुक्रवार को लाए गए प्रस्ताव को लेकर संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा, "मध्य पूर्व में शांति के लिए मुख्य सवाल दो राष्ट्र समाधान का कार्यान्वयन है, जहां दो स्वतंत्र, संप्रभु और लोकतांत्रिक राष्ट्र – इसराइल और फ़लस्तीन, शांति और सुरक्षा के साथ एक-दूसरे के आसपास बसें." इस घोषणापत्र के अनुसार दो राष्ट्र समाधान की दिशा में "ठोस, समयबद्ध और ऐसा क़दम उठाया जाना चाहिए जिसे फिर बदला न जा सके."
सात पन्नों के इस दस्तावेज़ में ग़ज़ा में जंग ख़त्म करने को लेकर सामूहिक क़दम उठाने की बात कही गई है "जिससे एक न्यायपूर्ण और शांतिपूर्ण हल निकले और इसराइल-फ़लस्तीन संघर्ष का पूर्ण समाधान हो सके." इसमें ग़ज़ा में भविष्य के नेतृत्व से हमास को पूरी तरह बाहर करने की भी मांग की गई है और हमास समेत सभी फ़लस्तीनी समूहों से कहा गया है कि "वह फ़लस्तीनी ऑथोरिटी को अपने हथियार सौंप दें और एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाने की दिशा में काम करें." इस साल जुलाई में फ्रांस और सऊदी अरब की तरफ से फ़लस्तीन के मुद्दे पर एक अंतरराष्ट्रीय बैठक आयोजित की गई थी. न्यूयॉर्क घोषणापत्र की बात यहीं से शुरू हुई थी. इस प्रस्ताव को पहले ही अरब लीग मंज़ूरी दे चुकी है और संयुक्त राष्ट्र के 17 सदस्य देशों (जिनमें कई अरब देश भी शामिल हैं) ने इस पर पहले ही हस्ताक्षर कर दिए थे.
प्रस्ताव पर हुई बहस में इसराइल के दूत डैनी डैनन ने कहा, "ये एक एकतरफ़ा घोषणापत्र है जिसे शांति की दिशा में उठाया गया क़दम नहीं माना जाएगा. ये एक खोखला संकेत है जो इस सभा की विश्वसनीयता को कम करता है." उन्होंने कहा कि "अगर इस प्रस्ताव से किसी की जीत हुई है तो वो है हमास" जो इसे "सात अक्तूबर के हमले का नतीजा बताएगा." क़तर पर इसराइल के हमले के बाद अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो भी इसराइल जाने वाले हैं. विदेश मंत्रालय की तरफ़ से जारी बयान में कहा गया है कि अपने दौरे में रुबियो इसराइल विरोधी कार्रवाइयों से लड़ने में "अमेरिका की प्रतिबद्धता पर चर्चा करेंगे, जिसमें हमास के आतंकवाद को इनाम देने वाले एक फ़लस्तीनी राज्य को एकतरफ़ा मान्यता दिया जाना" शामिल है.
शुक्रवार को यूएन में लाए गए प्रस्ताव का भारत ने समर्थन किया है.
वहीं यूएन में इसी साल जून में इसराइल-ग़ज़ा युद्धविराम को लेकर वोटिंग हुई थी. भारत ने इससे दूरी बना ली थी जिसके बाद विपक्ष ने भारत की कूटनीति की कड़ी आलोचना की थी. भारत उन 19 देशों में से एक था जिन्होंने इस वोटिंग से दूरी बनाई थी. ऐसे में शुक्रवार को हुई वोटिंग को भारत का बड़ा कूटनीतिक क़दम कहा जा रहा है. उस वक्त संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि, पर्वतानेनी हरीश ने कहा था, "इसराइल और फ़लस्तीन के मुद्दे पर भारत हमेशा से दो-राष्ट्र समाधान का समर्थन करता रहा है, जिसमें एक संप्रभु और स्वतंत्र फ़लस्तीनी राज्य की स्थापना हो, जो शांतिपूर्वक तरीक़े से, सुरक्षित और मान्यता प्राप्त सीमाओं के भीतर इसराइल के साथ-साथ रह सके."
भारत का विदेश मंत्रालय भी कई मौक़ों पर यह कह चुका है कि फ़लस्तीन के मुद्दे पर भारत का समर्थन देश की विदेश नीति का एक अभिन्न अंग है. विदेश मंत्रालय ने कई बार कहा है, "भारत हमेशा से फ़लस्तीन के लोगों के लिए एक संप्रभु, स्वतंत्र देश फ़लस्तीन की स्थापना के लिए सीधी बातचीत करने की वकालत करता रहा है. एक ऐसा देश बने जिसकी अपनी सीमा हो और फ़लस्तीनी वहां सुरक्षित रह सकें. जो इसराइल के साथ भी शांति के साथ रहें." विपक्ष के सवाल का जवाब देते हुए दिसंबर 2024 में सरकार ने संसद में भी इस बात को स्पष्ट किया था कि इसराइल और फ़लस्तीन के मुद्दे पर भारत दो राष्ट्र समाधान का समर्थन करता है. साथ ही भारत मानता है कि फ़लस्तीन को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता मिलनी चाहिए.
संसद में इसी तरह के एक और सवाल के जवाब में जुलाई में भारत सरकार ने एक बार फिर दो-राष्ट्र समाधान के समर्थन की बात की थी. इससे पहले साल अप्रैल 2023 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में एक प्रस्ताव लाया गया था जिसमें इसराइल को 1967 के बाद से क़ब्ज़े वाले इलाक़ों को छोड़ने के साथ-साथ नई बस्तियों की स्थापना और मौजूदा बस्तियों के विस्तार को तुरंत रोकने के लिए कहा गया था. भारत ने इस प्रस्ताव के पक्ष में भी मतदान किया. इस साल अक्तूबर में ग़ज़ा में `नागरिकों की सुरक्षा और क़ानूनी और मानवीय क़दमों को जारी रखने की वचनबद्धता` को लेकर एक प्रस्ताव पेश किया गया था. जॉर्डन के लाए इस प्रस्ताव पर हुई वोटिंग में भारत ने हिस्सा नहीं लिया. सरकार को इसके बाद विपक्ष की आलोचना झेलनी पड़ी. इसी साल दिसंबर में मानवीय आधार पर ग़ज़ा में युद्धविराम लागू करने से संबंधित प्रस्ताव का भी भारत ने समर्थन किया था. हालांकि पूर्वी यरूशलम समेत क़ब्ज़े वाले फ़लस्तीनी इलाक़े में मानवाधिकारों की स्थिति पर जनवरी 2023 में आए एक प्रस्ताव पर भारत ने वोट नहीं किया था.
अमेरिका और इसराइल ने इस मसौदा प्रस्ताव के ख़िलाफ़ मतदान किया, जबकि भारत सहित ब्राज़ील, जापान, म्यांमार और फ्रांस मतदान से दूर रहे. भारत का विदेश मंत्रालय कई मौक़ों पर ये साफ़ कर चुका है कि फ़लस्तीन के मुद्दे पर भारत का समर्थन देश की विदेश नीति का एक अभिन्न अंग है. फ़लस्तीन मुद्दे को भारत का समर्थन दशकों पुराना है. साल 1974 में भारत फ़लस्तीन मुक्ति संगठन को फ़लस्तीनी लोगों के एकमात्र और वैध प्रतिनिधि के रूप में मान्यता देने वाला पहला ग़ैर-अरब देश बना था. 1988 में भारत फ़लस्तीनी राष्ट्र को मान्यता देने वाले पहले देशों में से एक बन गया. 1996 में भारत ने ग़ज़ा में अपना प्रतिनिधि कार्यालय खोला जिसे बाद में 2003 में रामल्ला में स्थानांतरित कर दिया गया था.
बहुत से बहुपक्षीय मंचों पर भारत ने फ़लस्तीनी मुद्दे को समर्थन देने में सक्रिय भूमिका निभाई है. संयुक्त राष्ट्र महासभा के 53वें सत्र के दौरान भारत ने फ़लस्तीनियों के आत्मनिर्णय के अधिकार पर मसौदा प्रस्ताव को न केवल सह-प्रायोजित किया बल्कि इसके पक्ष में मतदान भी किया था. भारत ने अक्टूबर 2003 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के उस प्रस्ताव का भी समर्थन किया जिसमें इसराइल के विभाजन की दीवार बनाने के फ़ैसले का विरोध किया गया था. 2011 में भारत ने फ़लस्तीन के यूनेस्को के पूर्ण सदस्य बनने के पक्ष में मतदान किया था.2012 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के उस प्रस्ताव को सह-प्रायोजित किया था जिसमें फ़लस्तीन को संयुक्त राष्ट्र में मतदान के अधिकार के बिना "नॉन-मेंबर ऑब्ज़र्वर स्टेट" बनाने की बात थी. सितंबर 2015 में भारत ने फ़लस्तीनी ध्वज को संयुक्त राष्ट्र के परिसर में स्थापित करने का भी समर्थन किया था.
भारत कई प्रोजेक्ट्स बनाने में भी फ़लस्तीनियों की मदद कर रहा है. फ़रवरी 2018 में नरेंद्र मोदी फ़लस्तीनी क्षेत्र में जाने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने. उस दौरान मोदी ने कहा था कि उन्होंने फ़लस्तीनी प्रशासन के प्रमुख महमूद अब्बास को आश्वस्त किया है कि भारत फ़लस्तीनी लोगों के हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है. पीएम मोदी ने कहा था, "भारत फ़लस्तीनी क्षेत्र को एक संप्रभु, स्वतंत्र राष्ट्र बनने की उम्मीद करता है जो शांति के माहौल में रहे." भारत इसराइल से महत्वपूर्ण रक्षा टेक्नॉलोजी का आयात करता रहा है. साथ ही दोनों देशों की सेनाओं के बीच भी नियमित आदान-प्रदान होता है. सुरक्षा मुद्दों पर दोनों देश साथ काम करते हैं. दोनों देशों के बीच आतंकवाद विरोधी संयुक्त कार्यदल भी है. फ़रवरी 2014 में भी भारत और इसराइल ने तीन महत्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर किए थे. ये समझौते आपराधिक मामलों में आपसी क़ानूनी सहायता, होमलैंड सुरक्षा और ख़ुफ़िया जानकारी के सुरक्षित रखने से जुड़े थे. साल 2015 से भारत के आईपीएस अधिकारी हर साल इसराइल की राष्ट्रीय पुलिस अकादमी में एक हफ़्ते की ट्रेनिंग के लिए जाते रहे हैं. दोनों देशों के पर्यटक भी बड़ी संख्या में हर साल एक दूसरे के यहां घूमने जाते हैं. भारत से जुड़े कई पाठ्यक्रमों को तेल अवीव विश्वविद्यालय, हिब्रू विश्वविद्यालय और हाइफ़ा विश्वविद्यालय में पढ़ाया जाता है.